बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों की स्थिति बेहद चिंताजनक होती जा रही है। मंदिरों को जलाया जा रहा है, भगवान की मूर्तियाँ तोड़ी जा रही हैं, और हिंदू पुरुषों को खुलेआम निशाना बनाकर मारा जा रहा है। महिलाओं को उनके ही घरों और दुकानों में हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है। ये घटनाएँ बेतरतीब नहीं, बल्कि सुनियोजित हैं।
एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार, 2013 से 2024 के बीच बांग्लादेश में हिंदू विरोधी 3,600 से अधिक घटनाएँ दर्ज की गईं — ये आंकड़े उस दौरान के प्रधानमंत्री शेख हसीना के शासन में सामने आए, जिन्हें अपेक्षाकृत उदार और धर्मनिरपेक्ष माना जाता है।
इन हमलों के पीछे एक आम संगठन है — जमात-ए-इस्लामी। यह संगठन 1941 में सैयद अबुल अला मौदूदी द्वारा स्थापित किया गया था और इसका उद्देश्य पूरे भारत में शरिया कानून लागू करना था। बंटवारे के बाद यह संगठन पाकिस्तान चला गया और बाद में बांग्लादेश में भी सक्रिय हो गया।
1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान जमात-ए-इस्लामी ने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया और उसके 50,000 से अधिक सदस्यों ने रजाकर (पाकिस्तानी सेना के सहयोगी) के रूप में काम किया, जिनपर स्वतंत्रता सेनानियों और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के आरोप हैं।
इस संगठन की छात्र शाखा, इस्लामी छात्र शब्बीर, बांग्लादेश में हालिया छात्र विरोधों और सरकार विरोधी आंदोलनों की भी प्रमुख सूत्रधार रही है।
चिंता की बात यह है कि यह संगठन अब भारत में भी सक्रिय है। UNHCR की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बोधगया मंदिर (2013), बर्दवान (2014) और कालचक्र मठ (2018) में हुए बम धमाकों में इसका हाथ रहा है।
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